Wednesday, December 26, 2012

(यथा राजा तथा प्रजा )

बड़ा निर्लज्ज है मेरा 
मकान मालिक 

मांगने को तो माचिस की तीलियाँ तक 
उधार मांग लेता है 

हाँ 
मगर देने को 
दुआ तक नहीं देता 

सरकारी मुलाजिम है "मकान मालिक"

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(यथा राजा तथा प्रजा )

Thursday, November 15, 2012

हिन्दू और मुसलमान


अरसा पहले
जब मंदिरों मे हुआ करती थी
सच मुच की आरती ,
मस्जिदें अजान मे गुनगुनाती रहती थीं,

तब
जबकि भूख ...
माँ के हाथों की लज्जत मे हुआ करती थी,

उसी दौर मे
एकाएक पागल हों गया था आदमी
कलाईयों मे राखी की जगह
तलवारें आ गयी थीं
औरतें -बच्चे काट डाले गए थे
जानवरों की तरह,
हाँ एक दम उसी दरमियाँ
जब
चूल्हों की आग
सुलगने लगी थी
दूसरों के घर
और
बेटियों के बदन पर....

उसी मारकाट के दौर मे
जब की
दो भाइयों ने
बाँट लिया था अपना आँगन,

कुछ फसलें कट चुकी थीं
कुछ का कटना बाकी था

वो दौर......

ओह
उस रेल-पेल
भागम भाग
मार काट मे

दो भाइयों की लाशें
जिन्दा बच गयीं थीं
जिन्हें हम आज
हिन्दू और मुसलमान कहते हैं!
*amit anand

जाने दो

मैं दंगाई नहीं

मैं आज तक

नहीं गया

किसी मस्जिद तक

किसी मंदिर के अन्दर क्या है

मैंने नहीं देखा,



सुनो

रुको

मुझे गोली न मारो

भाई

तुम्हे तुम्हारे मजहब का वास्ता

मत तराशो अपने चाक़ू

मेरे सीने पर,



जाने दो मुझे

मुझे

तरकारियाँ ले जानी हैं



माँ

रोटिया बेल रही होंगी!



*amit anand 

गुनाह

बरसती दुपहरियों मे बरामदे पर चारपाई डाले हुए मन .... हवाओं के साथ बहती आती हुयी बूंदों मे भीगता ... सिहरता अतीत की ओर भागता है!
बीते दिन याद आते हैं.... एक अनदेखी लेकिन चम्पई एहसास समेटे हुए एक लड़की... जिसकी सांस सांस मे कविता के शब्द झरा करते थे.... मंदिर की घंटियों के से शब्द!

याद आते हैं बीते हुए दिन.... तकिये मे सिर छिपाए हुए, 
आरती के सुर.... शाम के धुंधलके मे मस्जिद से आती हुयी अजान सी उसक
ी बोली.... उबलते हुए दूध मे अभी अभी डाले गए केशर की सी यादें भीतर भीतर घुलती हैं!

अपने पाप..... अपना छल याद आता है, बारिशें हैं की जोर पकडती जा रहीं! भीतर की ढृढ़ दीवाल दरक रही हों मानो
उसकी पावनता... उसका अपनापन....
ओह ओह
तकिया पानी मे नहीं भीगा शायद..... आँखें गीली हैं मेरी!

मेरे ईश्वर!
भले ही मेरे गुनाह ना माफ़ कर!

लेकिन उस मासूम फ़रिश्ते को खूब सारी खुशियाँ देना...


*amit anand

डर

अब तो नींद से भी डर लगता है..

दिन भर की मक्कारियां बुनता मन, रात चादरों मे सलवटें डालता हुआ, ऊंघता, सिर झटकता ... बाल नोचता है....
एक कतरा नींद की मन्नतें मांगता ...मन.... जब तब सो भी जाता है / गीली तकियों मे मुंह छिपाए...
पर पाप अपना हिसाब मांगने वहाँ भी हाज़िर ....
मन जाल मे फंसी मछली की तरह कसमसाता है और सपने हैं कि एक एक कर आते जाते हैं....
पुराने लोग.... आ खड़े होते हैं, चिढाते हुए... आतुरता बढाते हुए....
बचपन की खोई हुयी "ड्राइंग बुक" खुल जाती है .... एक टांग पर नाचता हुआ मोर... अल्हड हाथों से भरा हुआ भोथरा रंग... सितारों भरी फ्रोक पहन कर नाचती हुयी लड़की....

सपने मन को शार्पनर मे डाल कर पेंसिल सा उमेठते रहते हैं.... अतीत की परतें .. महीन सी छिलकों की तरह आस पास बिखरती जाती हैं....
तकिया .... भीग चुका तकिया .. कसमसाता रहता है भोर तक....

खिडकियों पर झांकती हुयी अंगूर की बेल पर दो नन्ही बुलबुलें कोई गीत गा रही हैं,
बीता हुआ गीत...
सूरज रोशनदानो से झांकता हुआ, मुंह पर ठहर सा गया है... सिरहाने चाय ठंडी हुयी जा रही...
मन है कि अभी भी नींद की दहशत मे हिचकियाँ भर रहा...

*amit anand

पन्ने


बारिश की प्रतीक्षा मे चिपचिपे हुए दिन मे मन होता है कि झरबेरियाँ खायी जाएँ, खट-मीठी झरबेरियाँ ....
मन छुट्टी की घंटी के बाद के बच्चे सा भाग उठता है अतीत की ओर स्मृतियों का बस्ता टाँगे...
नदी पर बना पीपे का डग-मग पुल.... किनारों पर खड़े कास के झुरमुट .... जामुन के जंगलों मे चरती हुयी बकरियों की में-में... छूता हुआ .. भोगता हुआ मन,
झरबेरियाँ ढूँढता है !

"वर्त्तमान का एक झोंका शरीर सहलाता हुआ गुजरता है , भादों की तपती दुपहरी ... कसमसाते हुए करवटें बदल रही है"
मन है की नदी किनारे के कास की रपट से कटता... छिलता जाता है, झरबेरियाँ नहीं मिल रहीं ....

अतीत का गडरिया दिखता है कांधे पर कम्बल डाले भेड़ों के पीछे बांसुरी बजाता गडरिया... लकड़ी के बड़े से चक्के वाली बैलगाड़ी पास से चुचुआती गुजर जाती है ..... बावरा मन झरबेरियों के आकुल...
भीगी चाँद रातों के बाद की सुबह सा धुंधलका पसरता जाता है आस पास .... कभी नदी पर बना पुराना पीपा पुल, कभी दैत्याकार खम्भों पर खड़ा नया कंकरीट पुल गडड मड्ड हों रहा...
बैल गाड़ियां भागती जा रहीं.... उनके पीछे हज़ारों हजार मोटर ......
कास मे आग सी उठती दिखी....
मन अब भी झरबेरियों की आस मे भागता फिरता है,

नदी किनारे के जामुन के जंगल गायब हों रहे .. धुंआ धुंआ हों... नए जंगल उग रहे वहाँ कुकुरमुत्तों की तरह के कंकरीट के जंगल ...

धुंधलका गहरा और गहरा होता जाता है....झरबेरियाँ है कि अतीत के किसी पन्ने मे खो सी गयी हैं....

मन.. पन्ने पलटता जाता है!!

*amit anand

Thursday, May 24, 2012

महावर



आज-कल
बड़े
एहतियात से
घोलते हों
तुम
रंग
माटी के दीये मे,

और
लाल रंग
तुम्हारी उँगलियों के पोर छू
महावर बन जाता है,

मेरे
आँगन मे
तुम्हारे शुभ पाँव
उभर आते हैं!

*amit anand

गिफ्ट

बजबजाते कचरे से 
पन्नियाँ खींचते 
टीन -टप्पर बटोरते हुए
बिधनुआ अनाथ 
गुनगुनाता है 
हरामीपन का राग ,

कल 
कचरे में 
गिफ्ट वाली रंगीन पन्नियाँ निकलेंगी 
आज 
FATHER'S DAY जो है !!

तुम भूल रही हों मुझे

गुजरे समय की
वो 
"रुमाल"

जिसमे 
...बाँध कर
तुमने
अपनी सुधियाँ दी थीं,

जिन्दगी की 
भाग दौड़ मे
गुम गयी...

गुम हों गया 
उसका कढाई दार किनारा
उसकी गमकती महक
उसमे लुभाती हुयी
तुम्हारी नेह
सब...

शायद 
मैं उसे
किसी जाती हुयी ट्रेन मे भूल आया,

तुम्हारी सुधियाँ 
मुझसे दूर भागती जा रही हैं
शायद
स्टेशन दर स्टेशन ...

सुनो..
तुम भूल रही हों मुझे 

मुझे माफ़ करना
बिलकुल तुम्हारी ही तरह
मैंने गुम कर दीं 
तुम्हारी सुधियाँ भी!

*amit anand

आखिर क्यूँ

दूर
वहाँ पलाश के पास से
मुड गयी है
नयी बनी सड़क,

अब इस सूनी पगडण्डी पर
कोई नहीं आता,

दूर पहाड़ों की ओर से
बांसुरी बजाता
यदा कदा आनेवाला
चरवाहा भी नहीं आया
अरसा हुआ,

फिर भी
शाम ढलते ही
वो
सूनी पगडण्डी पर
जला देती है
एक दीप,

गाते हुए
एक पहाड़ी गीत-

"कोई ...
आखिर क्यूँ आएगा"!!

*amit anand

बंधन

अरसे से
नहीं आया
कोई "बहेलिया"

जाल बिछाने / दाना डालने,

वर्त्तमान का मैदान
सूना पड़ा है,

मन के पाखी
आतुर हों
छटपटाते हैं....

बंधन .............

Monday, May 7, 2012

"प्रश्न"

क्या कभी
कांच के गिलासों को भी लगती होगी
"प्यास"

नंगी सड़क पर
चिलचिलाती लू ने भोगी होगी भला
"चिपचिपाती उमस"

क्या कभी
साहब के झबरे कुत्ते को भी
... लगी होगी
"भूख"

क्या कभी किसी कुर्सी ने भी पूंछा होगा ये "प्रश्न"

*amit anand

खुले शूलेस

बड़े स्कूलों की दीवाल भी
हड़प लेते हैं
बड़े बड़े चेहरे ,

उड़ती मछलियाँ
गीत गाती तितलियाँ
मटकते बौने / सेब /आम/अनार

गुम जाते हैं
बचपन के  की तरह ..
...
उनपे टंग जाते हैं
खिचड़ी बालों वाले न्यूटन
अजीब सी मूंछों वाले मार्क्स ....

बड़े का अदब हमें बड़ा बनाता हों शायद!

*amit anand

Saturday, April 21, 2012

प्रतिबन्ध

मैं
अतिक्रमण करता हूँ
"अपनी सीमाओं का"
मैं लांघ जाता हूँ जाति धर्म की दीवार
मैं भाषाओं के पार जाता हूँ,

मैं मुखर हों उठता हूँ
दमन के खिलाफ
मैं सच बोलता हूँ
मैं सच सुनना चाहता हूँ

मुझ पर प्रतिबन्ध लगना चाहिए
मैं पश्छिमी बंगाल से हूँ!

*amit anand

Friday, April 20, 2012

महान

आज
बाज़ार से खरीदनी है
एक अदद दराती
कुछ खंजर
छूरियाँ... ब्लेड नश्तर ,

सभी तेज
मगर छुपाये जा सकनेवाले

कुछ
लुभावने से इतर /परफ्यूम की शीशियाँ
दो चार मीठे जुमले
बाजारू लटके-झटके,

और
कल विशिष्टता का मुखौटा लगा कर

"मैं महान बनने वाला हूँ"

*amit anand

सुर्ख लाल

मन के
कच्चे प्लास्टर पर
साल दर साल
जबरिया चढ़ जाता है नया रंग

नीला/पीला/ टेराकोटा /वेदारप्रूफ़
कभी कभी तो ऐन पिछला वाला ही,

हाँ लेकिन
भीतर की असल ईंटें
हमेशा
"सुर्ख लाल" रहती हैं!

*amit anand

पात्र

प्रिये!
मैं अगर "मैं" ना होता तो "तुम" होता

मैं रचता नित नए अवरोध
दरवाजे की
क्यारियों पर उजाता
तुम्हारे लिए नए नए अपराधबोध ,
नए तानो-फिकरों की फसल उगता
बात बात पर प्रतिरोध करता,

प्रिये!
सोचो अगर
"मैं" मैं ना होता
तो मैं भी टाँगता अपना वजनी भीगा क्रोध
तुम्हारी नेह की महीन डोर पर,

हाँ लेकिन मजे की बात यही है
कि
"मैं" अगर "तुम" बन जाता तो
आखिर
"तुम्हे" भी तो बन जाना था "मैं"

त्रासद है
कहानी नहीं बदलती तब भी

बस "पात्र" बदल जाते,

*amit anand

Monday, April 16, 2012

संतरे की फान्कवाली टॉफियों का गुम जाना

दुद्धी घुली दवातें
कहाँ गयीं
कहाँ गयीं -कलमुही तख्ती
मासाब की छपकी...

गोल चक्केवाला "भोपूबाजा"
फिरंगियों का खेल
कागज के रंगीन चश्मे कहाँ गए?

ओह
तुम सही थे दादा

तुम्ही ने कहा था
उस रोज़
भाप उगलती रेल गाडी को उंगली दिखा कर ..

बादलों की सी आवाज मे

"छुटके"
एक रोज़ मैं चला जाऊँगा इन पटरियों की आखिरी छोर पर
तुम्हारी तख्ती और मॉससाब की छड़ी के साथ,

और तुम चले भी गए दादा!
आज तो वो भापगाड़ी भी नहीं दिखती!

दादा
मैंने देखा है आज
दाढ़ी बनातेहुए
मेरे बाल भी सफ़ेद हों रहे,

दादा!
मैं डर रहा

मैं नहीं कर सकता कोई वायदा
अपने "छुटके " से...

मुझे
पता है
क्या होता है
"संतरे की फान्कवाली टॉफियों का गुम जाना"!

*amit anand

प्रथम कथा

आओ
आज तुम्हे एक किस्सा सुनाता हूँ!
बहुत पुराना किस्सा, ये किस्सा मेरे दादा से भी पुराना है या शायद उनके दादा से भी पुराना हों, हाँ
मेरा किस्सा पुरानी शराब की तरह है, मादक.... तेज गंध वाला
लेकिन है बहुत बहुत पुराना ......
ये किस्सा शायद तब का है जब स्वरों ने शब्द के रूप धरे थे पहली बार, पहाड़ी कंदराओं मे धुंध भरी आंखों मे पनपी ये आदि कथा है, किसी प्रथम किस्सागो का पहला किस्सा ....
हाँ लेकिन आज भी सामयिक है , मानो आज ही लिखा गया हों इसको आज ही सुनाया गया है मुझे पहली बार,
मैं ही नहीं ... किस्सा सुन ने के बाद तुम भी यहि कहोगे की ये "प्रथम कथा" कभी भी पुरानी नहीं हों सकती!

सुनोगे मेरा किस्सा?
अथाह भावों से भरा.... हज़ार हज़ार घटनाक्रम ... लाख लाख पात्र .... कोटि कोटि त्रासदियाँ... खिलखिलाहटें ... आंसू... स्पर्श .... आलिंगन .... मिलन... विछोह

मेरे आदि किस्से का नाम है-
"प्रेम"

हाँ पर ..... इस किस्से की कहानी गुम गयी है मुझसे ..... खोज रहा हूँ, मिलते ही सुनाऊंगा!

हाँ .... अगर तुम्हे मिले तो................


*amit anand

शिकार

आज फिर
चुटकियाँ टीस रहीं
उतर आया है आँखों मे लाल रांग,

भवें चढी हुईं
साँसें-
उग्र,

आज मन वहशी शिकारी है

चाँद, जुगनू,सितारों
तितलियों भाग जाओ

छिप जाओ

आज तुम्हारी शामत है

"मैं"
शिकार पर हूँ आज!

*amit anand

"सुरपतिया"

तीन-चार लड्डू
दो केले
भर पेट पूरियां,

दो तीन तरह की तरकारियाँ
मसालेदार भात,

आँखों मे कुल्मुलाता है
बड़का दुआर .....
उनका नन्हका
और सजा हुआ गुब्बारा
चमक जाता है,

आज बड़के बउवा के घर
उनके नन्ह्के का
जनम दिन है,

लड़का-जनम दिन
बुदबुदाती है
लम्बी सांस खींच,
नेपथ्य सिसकता है
पिछले साल हैजे मे चल बसा मरद
और
बम्मई भागा संवारका बेटा याद आता है,

होली मा उहौ
बाईस केर पूर होत,

सुरपतिया सिर झटक के
भुला देती है
बीत चुका अतीत,

कल के सपने देखती है
वैधव्य मे भी प्रणय गीत गाती है,

शाम की दावत मे
गाने को
एक सोहर गुनगुनाती है,

"सुरपतिया"
मगन मन सफ़ेद बालों मे लाल फीते लगाती है !

*amit anand

बीडी जला

दस दिन हुए
नहीं खायीं तरकारियाँ
स्वाद भूल गया दाल का
भूखा पेट है?
मत रो
मत चिल्ला..
जोर से खखार
"बीडी" जला!
भूल जा गाँव के खेत
नदी के किनारे
और
रेत
अम्मा का चश्मा
बिटिया की गुडिया
घरैतिन की चूड़ी
भूल,
उठ पुल से
हाथगाड़ी खींच
पसीना पोंछ
जोर लगा
"बीडी" जला,
शहर आने को
साहूकार का उधार,
भूल जा
मर गया बाप बीमार
भूल जा पनघट
डोली
गाँव की गीत गाती
होली,
शहर के नाले मे कूद
डूब-उफन

कुलमुला...
"बीडी जला"
*amit anand

उस्ताद था वो ......



हमारी तराई मे बहुत पहले जब रेल गाड़ियां "छुक-छुक" चला करती थीं तब हर साल सावन बीतते बीतते आ जाती थी दरभंगे की नाच मंडली, उनकी मेटाडोर ... ढोलकें हारमोनियम मंजीरे बड़े बड़े बक्से और वो अदृश्य सुंदरी..
आह! घर घर पारी लगती की फ़ला फ़ला दिन मंडली खाएगी, बड़के बगिया की पाठशाला मंडली की रिहायश बन जाती !
मंडली के रंगमंच की खातिर हम बच्चों के तख्ते छीन लिए जाते थे!
हाँ लेकिन मलाल नहीं होता था, मन मे दबा छुपा लोभ रहता कि मेरे तख्ते पर टिकोरी थिरकेगी!

टिकोरी .....
वही अदृश्य सुंदरी थी जो दिन भर उस पाठशाला मे नहीं दिखती थी , बस रात मे ..... दोनों हाथों मे चोटियाँ मटकाती नखरे दिखाती गीत गाती फिरती थी नौटंकी के बीच बीच मे......
बाल मन हज़ारों हजार ख्वाब बुना करता था उसके लिए, नानी कि दी हुयी मलाई लेकर जाने क्लितनी बार भगा था मैं पाठशाला तक .... पर दिन के उजालों मे वो कहीं नहीं दिखती थी!

क्रम चलता रहा
बाल मन साल दर साल किशोर hote हुए युवा हों गया,

लेकिन "टिकोरी" के प्रति उत्सुकता कम नहीं हुयी बढ़ ही गई,

याद है आज भी
मानो कल ही की बात हों

उस रोज ऊंघती दुपहरी मे मैं बड़ी हिम्मत के साथ सीधे मंडली के मास्टर से लड़ भिड़ा था,

बाह मास्टर जी, खाते हमारे हिया हों, इनाम हमसे लेते हों, और "टिकोरिया " को छिपाए फिरते हों?
कायदे से सुन लो कल तुम सब का खाना हमारे घर के हिस्से पर है "तिकोरिया" को लाओगे तो तबहि खाने को मिलेगा नाय तो हुवायीं नंगा नाच करवा देंगे,

अरे बबुआ, खिसिया जिन
टिकोरिया से मिले का बा ना, बिहाने मिल लेयीं, बकी टिकोरिया राउर के घरे जाए नइखे सकत ,

कौनो बात नाय मास्टर
उका दिखाय देव दिन का कल!
..

ओह ओह ओह!!
वो भी दिन था .... सुबह से सजने सवरने के हजार हजार जतन, इतर पौडर तेल... टिकोरिया से अकेले मे जो मिलना था
सीधा मास्टर के पास गया - मास्टर सुन लो कौनो चाल बाजी भाई ना तौ......
अरे रौआं काहें डरत बानी मिल लेयीं टिकोरिया से, वाऊ जू हेडमास्टर वाला कमरा मे...

धड़कते दिल और सूखते गले के साथ मैं हेडमास्टर के कमरे मे घुसा, वही .... एक दम वही .. दो दो चोटियाँ ... लाल फीते ... आँखों मे काजल .. पैर मे रुनझुन पायल
टिकोरिया ही थी वो दिन के उजाले मे
मैंने मेले मे बचाए अपने पैसों से खरीदी चांदी की अंगूठी दी उसको ..... कांपते हाथ से,
उसकी उँगलियों को छूना अप्रतिम था...

फिर वो मुझे
पीछेवाले दरवाजे से खींचते हुए बहार लेकर चली गई हम उस उआजद वाले ताल पर थे.... वहाँ कोई भी आता जाता नहीं था,

बौव्वा हमको कम से जानते हों?
बहुत दिनों से
व्याहोगे हमें?
हम्म क्यूँ नहीं
पर हम तो नीच जात हैं
कोई नहीं, हम तब भी कर लेंगे
माँ मेरे हाथ का खाएगी?
पता नहीं
फिर?
वो खुद पका लिया करेगी, तू बस मुझसे शादी कर ले
और बुढापे मे? जब वो लाचार होगी?
नौकर कर दूंगा
उन्होंने भी किया था आपके लिए जब आप छोटे थे?
उल-जलूल बात मत कर , भाग चल मेरे साथ , नाचना गाना छूट जाएगा तेरा, इज्जत से जियेगी

कुछ देर तक मौन था....
जिंदगी देखी है तुमने? (इस बार आवाज कुछ परिवर्तित थी)
हाँ बहुत
तो ये भी देखो

फिर उसने बड़े इत्मीनान ने दो दो चोटियों वाले बार उतारे और मेरे हाथ मे रख दिए...
चोली घाघरा .. कान की बालियाँ .. नाक की कील

और आखिर मे वो मेरी तरह मेरी ही उम्र का लड़का था

अमित भैय्या, जिंदगी इस से भी बड़े बड़े मुखौटे उतारेगी.... मायने टिकोरिया नहीं रखती उसकी कला को तवज्जो देना सीख लो,
टिकोरिया टिकाराम हों सकता है लेकिन बादल हमेशा बादल रहेंगे


ओह
उफ़

मैं स्तब्ध था
उस के बाद तो गाँव छूट गया लेकिन बादल बन जाने का लोभ नहीं छूटा शायद!

टिकाराम सच मुच का उस्ताद था!



*amit anand

Sunday, April 15, 2012

पहाड़ी मैना

पहाड़ी मैना
तुम्हारी लाल चोंच याद आती है,

याद आता है
तुम्हारे स्निग्ध परों का फैलाव
तुम्हारी गोल मासूम आँखें
तुम्हारी मटकती गर्दन
टप्प हिलती तुम्हारी पूँछ,

तुम्हारे गीत याद आते हैं
पहाड़ की मैना,

मैंने
आज फिर रचे हैं कुछ नए गीत
जिसमे पहाड़ हैं
नदियाँ/झरने
और
देवदार हैं,

मैना
तुम्हारी जादुई आवाज मे सुनना है
मुझे
मेरा गीत,

सुनो
मैं तुम्हे अपना गीत भेजता हूँ

तुम
बस
अपना पता बता दो!

*amit anand

शहर की नंगी सड़क

उठो साथी
कदम बढाओ मेरे साथ
मुट्ठियाँ भीचों
भरो एक हुम्म्कार,

एक जुट हों जाओ
साथ-साथ आओ,

आओ
बाँट लेते हैं शहर का हर चौराहा
सारी लाल बत्तियां,

बाँट लेते हैं
सारी कालोनियां, ओफिसें,बाजार

बांटना जरूरी है
क्योंकि-
हमें भी चाहिए एक मकान
इन्ही चौराहों,लाल बत्तियों/ऑफिसों के एन बीच,

आधी "लैला" के शुरूर मे
धुत्त
गुमानी लंगड़ा बन जाता है
"माओत्से तुंग" या फिर कार्ल मार्क्स

और
कुचलता है
शहर की नंगी सड़क को
अकेले मे

"अपनी अकेली टांग के साथ"

*amit anand

"कटिया का गीत"

पक चुके
गेहूं के खेतों पर
दरातियाँ चलती हैं

कुछ
रंगीन चूड़ियाँ
खुरदुरी हथेलियाँ
छूती..
खनकती फिरती हैं
गेहूं का पोर पोर,

जड़ों से कटते हुए
गेहूं
बड़े इत्मीनान से सुनता है
एक गीत-
"कटिया का गीत"

बोल झरते जाते हैं
और
सरहद पर शहीद सैनिकों की तरह
जमीन पर पसरते जाते हैं
पके हुए गेंहूँ,

हाँ पर..
जड़ें अभी भी जमीन से जुडी हुयी ही रहती हैं!

*amit anand

बहती नदिया से तुम

बहती नदिया से तुम
कल-कल
निर्मल
शीतल,

थिर किनारों सा
मेरा अस्तित्व

ना तुम ठहरते हों
ना मैं साथ चल पता हूँ!

*amit anand

मैं

वहम है तुम्हारा

मैं
नहीं नहीं मरता
तुम्हारी
काटी हुयी लकीरों से

ना ही मुझे चढ़ता है
बुखार..
तुम्हारे तमाम नीम्बू मिर्चें
बेकार/ बेअसर हैं मुझ पर,

कुछ भी कर लो..

तुम
अपनी मक्कारियों के साथ -साथ
मुझे भी क्यूँ नहीं दे देते
एक सह-अस्तित्व

आखिर
मैं
तुम्हारे भीतर का शुभ हूँ
तुम्हारा कोमल पक्ष हूँ
"मैं"

*amit anand

Sunday, March 25, 2012

ऊब

रोज़ रोज़ ही
लगभग एक से संवाद
सीमित शब्द,

एक सी भावभंगिमाएँ
... एक तरह के वस्त्र

रोज़ रोज़
घुटनों के बल बैठना

ऊब गया हूँ
इस
काठ के मंच से!

दर्शक बदलते जाते हैं
पर
तुम्हारे मंच का कथानक नहीं बदलता!
*अमित आनंद

रंग मंच

तुम्हारा -रंग मंच
तुम्हारे पात्र
तुम्हारा कथानक
तुम्हारी ध्वनियाँ
प्रकाश तुम्हारा,

तुम्हारा निर्देशन
तुम्हारा अनावरण
पटाक्षेप तुम्हारा,

सुनो-
बहुत त्रासद है
तुम्हारी एकांकी,

झरती आँखें
भीड़ की सिसकियाँ
मैं नहीं सह सकता अब,

मेरा आखिरी मंचन करो
या फिर
अब मुझे
नेपत्थ्य दे दो!

*amit anand

Monday, January 9, 2012

बार बार मन मे हुलासें भर, आँगन की किलकारियों के सपने देखती "नौगावां वाली भौजी" आज भोर मे चल बसीं!
पैंतीस- चालीस साल की जिंदादिल हंसमुख भौजी की गोद अभी तलक सूनी ही थी! साल दर दर साल से बार बार उनकी कोख मे मौसमी बादलों की तरह एक अंखुआ पनपता और कोंपलें फूटने से पहले ही ... आसमान सूना हों जाता था .. सूनी रह जाती थी भौजी की आँख...

बात बात मे "छोटके बौव्वा" कह कर दुहरी होते रहने वाली भौजी ने अबकी बड़े जतन से सहेजा था उनमे पनपा हुआ अंकुर..... डॉक्टर... हकीम , वैद.. मंदिर ... मस्जिद ... मजार....
हर जगह... हर तरह से मन्नते मांगती हुयी भौजी बहुत खुश थी इन दिनों... पांचवां महिना जो चल रहा था.....

किशन जैसे लालन की चाह..... बेचारी बार बार की त्रासदी झेलती देह मे एक अजन्मा सपना सहेजे कल जन्माष्टमी का निराजल व्रत थीं!

बाकी का काम खून की कमी और भादों के तपते उमसते दिन ने कर दिया....

"नौगावां वाली भौजी" की आँखों मे पनपता मेरा अनदेखा सपना .... बीती रात कृष्ण जन्म के समय के आस-पास... बीत गया!

मेरे पास आने वाले मेहमान के लिए लायी हुयी "लाल फरों वाली गुडिया" कसमसा रही है...

मन है कि मानता ही नहीं.... भीतर का पागल बाकी के चार महीनो की प्रतीक्षा मे है....

* amit anand

22 August 2011