Sunday, March 25, 2012

ऊब

रोज़ रोज़ ही
लगभग एक से संवाद
सीमित शब्द,

एक सी भावभंगिमाएँ
... एक तरह के वस्त्र

रोज़ रोज़
घुटनों के बल बैठना

ऊब गया हूँ
इस
काठ के मंच से!

दर्शक बदलते जाते हैं
पर
तुम्हारे मंच का कथानक नहीं बदलता!
*अमित आनंद

रंग मंच

तुम्हारा -रंग मंच
तुम्हारे पात्र
तुम्हारा कथानक
तुम्हारी ध्वनियाँ
प्रकाश तुम्हारा,

तुम्हारा निर्देशन
तुम्हारा अनावरण
पटाक्षेप तुम्हारा,

सुनो-
बहुत त्रासद है
तुम्हारी एकांकी,

झरती आँखें
भीड़ की सिसकियाँ
मैं नहीं सह सकता अब,

मेरा आखिरी मंचन करो
या फिर
अब मुझे
नेपत्थ्य दे दो!

*amit anand