Sunday, June 27, 2010

मैं लडूंगा तुझसे

.
मौत!!
तू सम्पूर्ण
शक्तिमान!
तो
निरीह मैं भी नहीं,
कायर...
चुपके से वार करती है??
छीन ले गयी
एक एक कर
जाने कितने प्रिय!
खांसता बाप
आंसू बहाती माँ...
जवान बिटिया को आग मे झुलसाते
शर्म नहीं आई तुझे??
चोट्टी
ढाई बरस की बिटिया पे वार करके
कौन सा मेडल हाशिल किया?
अब
आ...
मैं भी तैयार हूँ
देख लूँगा
बेशक तू ही जीतेगी
लेकिन
तेरी क्रूरता के लिए
मैं लडूंगा तुझसे!!

*amit anand

आसाढ़ की वो शेष रात


.
बादलों की हुंकार के साथ
गुर्राती कलमुही बरसाती रात,
सुगना का नन्हका तप रहा है बुखार से!!

टपकती छानी के नीचे
खटिया सरकाती सुगना
कोसती है बुढापे की गरीबी को!

मुई बारिश....
आज बंद भी नहीं होगी शायद,

का पडी थी रे रमुआ??
काहे गया था तपती धूप मे
बडके वसारे की बेगारी करने,
का मिला??

अम्मा!
पानी.....
तड़कती बिजली की कौंध मे
कराह उठा रमुआ!!

और सुगना का काँपता हाथ
सरक गया
एक मात्र बची हंसली तक!

सुबह लल्लन साहू पर हंसली रेहन धर
सुगना शहर जायेगी
रमुआ की दवाई के लिए!

कहाँ गए रे रमुआ के बापू
टपकते छानी से
रमुआ की खटिया बचाते
सुगना सिसकती रही पूरी रात!!

और आसाढ़ की वो रात
अब तक
शेष है
सुगना की टपकती झोपड़ी पर!

*amit anand

Wednesday, June 9, 2010

क्या हुआ कि.......



.
क्या हुआ कि-
आज पिछली रात रमुआ मर गया!!

उसकी लाठी की ठक-ठक
कभी कभी गूंजती
सीटियों की आवाज.....
जागते रहो का अलाप!!
सब गुम हो गए!

हमारी बेफिक्र नींद के लिए
जागता
"रमुआ"
कल रात नशे मे धुत्त एक "वर्दी" की
गोली से मर गया!!

तो
क्या हुआ
महीने की एक सुबह को दिखनेवाला
"रमुआ"
नहीं रहा अगर!!

फिर कोई नया
बहादुर..... कल्लू..... मल्लू
कोई भी
आएगा नया चौकीदार
"और हम फिर सोयेंगे बेफिक्र नीद"

क्या हुआ कि.......

*amit anand

Saturday, June 5, 2010

फटे जूते की शोल

सुरपतिया अब नहीं आएगी
शायद....
करमजली .... दोनों बच्चों का भी नहीं सोचा
और
चली गयी उस मुंह झौंसे हलवाई के लौंडे के साथ!

सही किया
कौन सा मैं ही ब्याह के लाया था
कलकतिहा मेहरारू का कौन भरोसा
जैसे आई थी
वैसे ही गयी न!

अब?
दूनो नन्ह्कों का क्या होगा
(जूते की शोल पर कील ठोंकते मंगरू मोची की उधेरबुन)

होना का है
अबकी खरीदते वखत जांच परख के लायेंगे
ताकि फिर न भाग सके
नौकी मेहरारू!!

"और ठोंक दिया एक और कील फटे जूते की शोल पर"

*amit anand

Friday, June 4, 2010

पहली बारिश


महीनो के अंधड़
और
तपती धूप के बाद
सूखते ताल तलैय्यों के ऊपर
उमड़ ही आये
काले कजरारे बादल,
हवाएं नम हो गयीं आज सुबह..
मौसम के थपेड़ों से
कुम्हलाये हरे पत्तों ने खुद को झाड लिया!
मुझे
चिंता है
दूर जंगल मे
चिड़िया ने जने हैं दो नन्हे नन्हे बच्चे,
मेरे इश्वर
बच्चों को पहली बारिश सहने की
ताकत देना!!


*amit anand

नियति को झुठलाने के प्रयास मे


अबके कटिया मे भी नहीं आया
"बितना" का मरद!
मनसुख जाने का कमाता है दिल्ली मा,

पिछली दफा भी आया था
चार साल बाद
और साथ मे लाया था शहरी रोग

बेशरम
जाते जाते एक लड़का
और अपना रोग दे गया बितना को!

और
बितना!
निहाल..
खुश
मरद का रोग अपने माथे जो उठा लिया!

बितना का विश्वास
अबके लौटेगा तो एक दम चंगा आयेगा उसका मरद!

भले ही ई सहरी रोग
बितना का परान लई बीते!
कौनो फरक नहीं
मरद की जान तो बचेगी!!

बितना!
कर रही है इन्तजार
साल दर साल
गलती देह... उखडती साँसों के साथ!

बितना
जानती है अन्दर से
के
नहीं लौटेगा उसका मनसुख
अब कभी भी!

फिर भी
बितना करती है इन्तजार ...
नियति को झुठलाने के प्रयास मे!!


*amit anand

"मेरे बिपरीत"


शिव!!
तुम यहाँ भी??

मेरे
गाँव के बीच बने पक्के शिवाले का सुख छोड़
क्या लेने आये हो
यहाँ??

कीरत की माई के लोटे का जल
गोधू बाबा का धतूरा
बडकी माई के फूल....
क्या कोई कमी रह गयी थी वहाँ??

जो
यहाँ
इस धुंआ उगलते शहर के चौराहे पर
खुले आसमान मे
पीपल के तले
आसन लगाये हो??

कौन देता होगा तुम्हे यहाँ जल??
भोग कौन लगता होगा तुम्हारा??

तुम्हारे सर के ऊपर की घंटी??
तुम्हारी छत.....
सब कहाँ गए??

क्या तुम्हे अब भाने लगा है
शहर का धुंआ
मोटरों की चिल्ल-पों
बिलकुल
"मेरे बिपरीत"


*amit anand

किस्सों का भूत


स्कूल के गेट पर
कच्ची अमिया... लाल बेरियाँ
इमली.. अमरख का ठेला लगता
वो लंगड़ा बूढ़ा!

जिसके ठेले से
चुराए गए अमरख के चटखारों मे
असीम आनंद था!

जिसकी डोरी दार थैली मे
जादुई खजाने की तरह
तमाम खरे खोटे सिक्कों की एक
फौज हुआ करती थी!

जिसकी मलगजी आँखें
झुर्रीदार उंगलिया
कान के बाल
खिचड़ी दाढ़ी
उसे किस्सों का भूत बनाते थे!!

"अब कभी नहीं आएगा"
वो ठेलेवाला बूढ़ा
कल शाम रेलवे क्रासिंग पर
मुझे बचाते बचाते
वो खुद आ गया ट्रेन के तले,
उसका ठेला
उसकी अमिया
डोरीदार थैली
अजीबोगरीब सिक्के
सब बिखर गए हैं अब
हवा मे
किस्सों की तरह!!

*amit anand

तुम नहीं भी आओगे.....


तुम नहीं भी आओगे
तो
कुछ भी बिगड़ेगा नहीं!

अलगनी पर टंगे कपडे
बिखरे बर्तन
बड़ी दाढ़ी
बच्चों की फटी किताबें
सब जस की तस रहेंगी!

तुम नहीं आओगे
तब भी!

तब भी मेरे दरवाजे पर आएगा
बूढ़ा भिखारी
उसकी सारंगी
गाएगी दर्द राग...
तब भी चिड़ियाँ
आएँगी मुंडेर पर!

तुम नहीं आओगे
तब भी
चलेंगी साँसे
दुनिया रुकेगी नहीं

बस
थम जाएगा मेरी कल्पना का ज्वार
रुक जायेंगे मेरे शब्द
ठहर जायेंगे मेरे भाव

सच मानो
तुम नहीं आओगे
तो मेरे अलावा
कुछ भी नहीं
बिगड़ेगा!!


*amit anand

मैं


मैं
शायद.......
माध्यम मात्र हूँ
दुखों के दरकते हुए पहाड़ से रिसते हुए शब्दों का !

मैं एक हूँ
मैं अनेक भी...
मैं साकार हूँ
कल्पना भी मैं!

मैं सार
मैं सन्दर्भ भी मैं,
मैं दैत्य हूँ
गंदर्भ भी मैं !

मैं खुद चकित हूँ
कौन हूँ
मैं मुखर हूँ
मौन हूँ!

रातरानी की सुबह का फूल हूँ
बालपन के पांव का मैं शूल हूँ
मैं कुमुदनी की नसों का तार हूँ
एक बूढ़े स्वप्न का विस्तार हूँ!!

दर्द हूँ मैं
शूल हूँ अनुराग हूँ
पूस की ठंढी सुबह का राग हूँ!


*amit anand

अकेला उदास तारा


एक तारा
मेरी कल्पना के आसमान से
टपक आया रात
मेरी सूनी छत पर!
अकेला उदास तारा
छटपटाता रहा पूरी रात...
किसी अबोले बच्चे की तरह कराहा भी!
और
मैं टाँकता ही रहा एक और सितारा
अपनी कल्पना के आसमान पर
आज पूरी रात!
!
*amit anand

कल रात बारिश हुयी थी


चौराहे की नुक्कड़ पर बैठी
चिर प्रतीक्षारत बुढ़िया
पथरायीं आँखें
कांपते हाथ!

जाने कितने दिनों से भटकती
उसकी गठरी
अन्नी-दुअन्नी के दो चार बेकार सिक्के
दो जोड़ी फटी साड़ियाँ
धागे से बंधा चश्मा!

सब गुम हो गए
सुना है कल रात बारिश हुयी थी
बहुत तेज
मेरे चौराहे पर!


*amit anand

धूप


कल दोपहर की धूप
तेज थी
"सचमुच की तेज"
मौसम विभाग के आंकड़ों से भी तेज
मेरे कमरे को ठंढा करते एयर कंडीसन के विपरीत
आग बरस रही थी
कल शायद,

क्यूंकि
कल शाम
मेरी मुंडेर की गौरैय्या और उसके दोनों नन्हे
मरे पाए गए
मेरे एयर कंडीसन के नीचे!


*amit anand

बंद खिड़कियाँ


बंद खिड़कियाँ
सहेजती हैं एक पूरा युग
दादी की पथराई आँखें
बाबा का फटा कुरता
अम्मा के चूल्हे पर घटा हुआ नमक,

खिड़कियाँ सहेज लेती हैं सारी व्यक्तिगतता !!

दारु के नशे मे लाल
बापू की लाल आँखें
अम्मा की नील पड़ी पीठ
छुटके का फटा हुआ पाजामा
बडकी दीदी के वैधव्य का यौवन!

एक पर्दा दाल देती है बंद खिड़कियाँ!

सुना है कल मकान मालिक आया था
चार साल का बकाया है
व्याज मे खिड़की का फटका जाएगा,
तो क्या
टंग जायेगी एक
फटी बोरी
और फिर से सहेजेंगी कुनबे का दर्द
बंद खिड़कियाँ!!


*amit anand

धन्य


मेरे दरवाजे का बूढ़ा भिखारी
मैली गठरी
टूटा चश्मा
जगह जगह चोट के निशान भरे पावँ
कांपती उँगलियों से
समेटता है चिड़ियों के लिए बिखेरे गए / दो चुटकी चावल
और धन्य कर देता है
मेरा दरवाजा!!


*amit anand