Sunday, June 27, 2010

आसाढ़ की वो शेष रात


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बादलों की हुंकार के साथ
गुर्राती कलमुही बरसाती रात,
सुगना का नन्हका तप रहा है बुखार से!!

टपकती छानी के नीचे
खटिया सरकाती सुगना
कोसती है बुढापे की गरीबी को!

मुई बारिश....
आज बंद भी नहीं होगी शायद,

का पडी थी रे रमुआ??
काहे गया था तपती धूप मे
बडके वसारे की बेगारी करने,
का मिला??

अम्मा!
पानी.....
तड़कती बिजली की कौंध मे
कराह उठा रमुआ!!

और सुगना का काँपता हाथ
सरक गया
एक मात्र बची हंसली तक!

सुबह लल्लन साहू पर हंसली रेहन धर
सुगना शहर जायेगी
रमुआ की दवाई के लिए!

कहाँ गए रे रमुआ के बापू
टपकते छानी से
रमुआ की खटिया बचाते
सुगना सिसकती रही पूरी रात!!

और आसाढ़ की वो रात
अब तक
शेष है
सुगना की टपकती झोपड़ी पर!

*amit anand

3 comments:

  1. हर कविता एक अनकही टीस को दे जाती है... दिखने में तो ये दो-चार पंक्तियों का एकत्रीकरण है लेकिन वास्तविकता में व्यथा-दुःख-वेदना-कष्ट का प्रतिबिंबन है.... गजब का लिखते हो, बहुत सुन्दर जैसी टिप्पणियां यहां आकर बेमानी हो जाती हैं... शब्दों को आधार बनाकर टिप्पणी करना संभव नहीं...बस, इन शब्दों में उकेरी हुई कड़वी सच्चाई को कुछ हद तक महसूस ही किया जा सकता है... :(

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