तेरी गली मे
मेरी भटकन के चार-छः दिन
सब कुछ जैसे
मेरा सपना !
धुले धुले दिन,
खिली खिली शाम
स्याह - सर्द रातें!
मैं भटक सकता था
एक पूरी उम्र
तेरी गली मे!
लेकिन मेरे
अनदेखे प्रेम
मुझे अब
घर भी जाना है!!
*amit anand
Thursday, July 22, 2010
खो चुका हूँ
चिप चिपाती उमसती
चिडचिडी दोपहरी में
सरपतों की फुनगियों से लगे
चीरे की तरह
तुम्हारी याद!!
अकारण!
चटकती ज़मीन
दरारों भरे खेत पर
आवारों बादलों के झुण्ड सी
तुम्हारी स्मृतियाँ!!
अर्थहीन!!
ऊब सी है
तुम्हारी याद
तुम्हे सोचना
अब "टाइम पास" लगता है,
मीत मेरे
मान लो
की-
तुम्हे अब
"खो चुका हूँ मैं"
*amit anand
चिडचिडी दोपहरी में
सरपतों की फुनगियों से लगे
चीरे की तरह
तुम्हारी याद!!
अकारण!
चटकती ज़मीन
दरारों भरे खेत पर
आवारों बादलों के झुण्ड सी
तुम्हारी स्मृतियाँ!!
अर्थहीन!!
ऊब सी है
तुम्हारी याद
तुम्हे सोचना
अब "टाइम पास" लगता है,
मीत मेरे
मान लो
की-
तुम्हे अब
"खो चुका हूँ मैं"
*amit anand
सपने
दिन भर का थका हारा
"मोलाई"
रात लौटता है
अपने पांच गुना दस की पन्नी मे,
अपने सारे सपने उतार फेंकता है
दिन भर की मैल की तरह
और
नमक प्याज के साथ
तीन दुहाट्ठी रोटियाँ खा
मोलाई
तान लेता है
बेफिक्री की चादर!
कल के सपनो के लिए
मन मे
जगह जो बनानी है!!
*amit anand
"मोलाई"
रात लौटता है
अपने पांच गुना दस की पन्नी मे,
अपने सारे सपने उतार फेंकता है
दिन भर की मैल की तरह
और
नमक प्याज के साथ
तीन दुहाट्ठी रोटियाँ खा
मोलाई
तान लेता है
बेफिक्री की चादर!
कल के सपनो के लिए
मन मे
जगह जो बनानी है!!
*amit anand
"निहोर"
जाने कितनी
होली
कितने
दिवाली के दिए,
धान की कटिया
सावन के बादल
बीत गए,
साल दर साल
बढ़ता गया
खिड़की से सटा
नीम का पेड़
झर गए
चंपा के सारे फूल-पत्ते!
बिसर गयी
धुंआ उगलती वो भाप गाडी
जिससे
निकला था "निहोर"
परदेश को!
अब तो
मेले से लायी
निहोर की शेष बची चूड़ियाँ
तीन पत्तों के पीछे बची दो बिंदी
थिगलियों वाली चादर
पोस्टमैन का थैला
चूल्हे की खाली भदेली
माघ की एक आध रात ही
याद रख पाती है
निहोर को
और
सिसक पड़ते हैं तमाम असबाब!!
*amit anand
होली
कितने
दिवाली के दिए,
धान की कटिया
सावन के बादल
बीत गए,
साल दर साल
बढ़ता गया
खिड़की से सटा
नीम का पेड़
झर गए
चंपा के सारे फूल-पत्ते!
बिसर गयी
धुंआ उगलती वो भाप गाडी
जिससे
निकला था "निहोर"
परदेश को!
अब तो
मेले से लायी
निहोर की शेष बची चूड़ियाँ
तीन पत्तों के पीछे बची दो बिंदी
थिगलियों वाली चादर
पोस्टमैन का थैला
चूल्हे की खाली भदेली
माघ की एक आध रात ही
याद रख पाती है
निहोर को
और
सिसक पड़ते हैं तमाम असबाब!!
*amit anand
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