Sunday, March 6, 2011

प्रतीक्षित


चार पांच दिन से
आती थी
एक
सतरंगी तितली
दरवाजे के गुलाब पर,

कुछ दिन पहले
साख पर
कलियाँ आयीं थीं,

अधखिली कलियाँ

पिछले तमाम दिनों से
मैंने
तितली के साथ ही
भोगी थी
प्रस्फुटन की प्रतीक्षा,

और
ऊब कर
कल से नहीं गया
गुलाब तक!

आज
सुबह मुझे
गुलाब की कंटीली साख पर
तितली के पर मिले हैं,

सतरंगे ... कोमल पर !!

शायद तितली....
प्रतीक्षित ही मर गयी!!

*amit anand

1 comment:

  1. पहले भी कहा था .. और अब भी कह रही हूँ ... बेहतरीन रचना है .. कमाल का लिखा है आपने दद्दा ..

    ReplyDelete