Monday, April 16, 2012

उस्ताद था वो ......



हमारी तराई मे बहुत पहले जब रेल गाड़ियां "छुक-छुक" चला करती थीं तब हर साल सावन बीतते बीतते आ जाती थी दरभंगे की नाच मंडली, उनकी मेटाडोर ... ढोलकें हारमोनियम मंजीरे बड़े बड़े बक्से और वो अदृश्य सुंदरी..
आह! घर घर पारी लगती की फ़ला फ़ला दिन मंडली खाएगी, बड़के बगिया की पाठशाला मंडली की रिहायश बन जाती !
मंडली के रंगमंच की खातिर हम बच्चों के तख्ते छीन लिए जाते थे!
हाँ लेकिन मलाल नहीं होता था, मन मे दबा छुपा लोभ रहता कि मेरे तख्ते पर टिकोरी थिरकेगी!

टिकोरी .....
वही अदृश्य सुंदरी थी जो दिन भर उस पाठशाला मे नहीं दिखती थी , बस रात मे ..... दोनों हाथों मे चोटियाँ मटकाती नखरे दिखाती गीत गाती फिरती थी नौटंकी के बीच बीच मे......
बाल मन हज़ारों हजार ख्वाब बुना करता था उसके लिए, नानी कि दी हुयी मलाई लेकर जाने क्लितनी बार भगा था मैं पाठशाला तक .... पर दिन के उजालों मे वो कहीं नहीं दिखती थी!

क्रम चलता रहा
बाल मन साल दर साल किशोर hote हुए युवा हों गया,

लेकिन "टिकोरी" के प्रति उत्सुकता कम नहीं हुयी बढ़ ही गई,

याद है आज भी
मानो कल ही की बात हों

उस रोज ऊंघती दुपहरी मे मैं बड़ी हिम्मत के साथ सीधे मंडली के मास्टर से लड़ भिड़ा था,

बाह मास्टर जी, खाते हमारे हिया हों, इनाम हमसे लेते हों, और "टिकोरिया " को छिपाए फिरते हों?
कायदे से सुन लो कल तुम सब का खाना हमारे घर के हिस्से पर है "तिकोरिया" को लाओगे तो तबहि खाने को मिलेगा नाय तो हुवायीं नंगा नाच करवा देंगे,

अरे बबुआ, खिसिया जिन
टिकोरिया से मिले का बा ना, बिहाने मिल लेयीं, बकी टिकोरिया राउर के घरे जाए नइखे सकत ,

कौनो बात नाय मास्टर
उका दिखाय देव दिन का कल!
..

ओह ओह ओह!!
वो भी दिन था .... सुबह से सजने सवरने के हजार हजार जतन, इतर पौडर तेल... टिकोरिया से अकेले मे जो मिलना था
सीधा मास्टर के पास गया - मास्टर सुन लो कौनो चाल बाजी भाई ना तौ......
अरे रौआं काहें डरत बानी मिल लेयीं टिकोरिया से, वाऊ जू हेडमास्टर वाला कमरा मे...

धड़कते दिल और सूखते गले के साथ मैं हेडमास्टर के कमरे मे घुसा, वही .... एक दम वही .. दो दो चोटियाँ ... लाल फीते ... आँखों मे काजल .. पैर मे रुनझुन पायल
टिकोरिया ही थी वो दिन के उजाले मे
मैंने मेले मे बचाए अपने पैसों से खरीदी चांदी की अंगूठी दी उसको ..... कांपते हाथ से,
उसकी उँगलियों को छूना अप्रतिम था...

फिर वो मुझे
पीछेवाले दरवाजे से खींचते हुए बहार लेकर चली गई हम उस उआजद वाले ताल पर थे.... वहाँ कोई भी आता जाता नहीं था,

बौव्वा हमको कम से जानते हों?
बहुत दिनों से
व्याहोगे हमें?
हम्म क्यूँ नहीं
पर हम तो नीच जात हैं
कोई नहीं, हम तब भी कर लेंगे
माँ मेरे हाथ का खाएगी?
पता नहीं
फिर?
वो खुद पका लिया करेगी, तू बस मुझसे शादी कर ले
और बुढापे मे? जब वो लाचार होगी?
नौकर कर दूंगा
उन्होंने भी किया था आपके लिए जब आप छोटे थे?
उल-जलूल बात मत कर , भाग चल मेरे साथ , नाचना गाना छूट जाएगा तेरा, इज्जत से जियेगी

कुछ देर तक मौन था....
जिंदगी देखी है तुमने? (इस बार आवाज कुछ परिवर्तित थी)
हाँ बहुत
तो ये भी देखो

फिर उसने बड़े इत्मीनान ने दो दो चोटियों वाले बार उतारे और मेरे हाथ मे रख दिए...
चोली घाघरा .. कान की बालियाँ .. नाक की कील

और आखिर मे वो मेरी तरह मेरी ही उम्र का लड़का था

अमित भैय्या, जिंदगी इस से भी बड़े बड़े मुखौटे उतारेगी.... मायने टिकोरिया नहीं रखती उसकी कला को तवज्जो देना सीख लो,
टिकोरिया टिकाराम हों सकता है लेकिन बादल हमेशा बादल रहेंगे


ओह
उफ़

मैं स्तब्ध था
उस के बाद तो गाँव छूट गया लेकिन बादल बन जाने का लोभ नहीं छूटा शायद!

टिकाराम सच मुच का उस्ताद था!



*amit anand

Sunday, April 15, 2012

पहाड़ी मैना

पहाड़ी मैना
तुम्हारी लाल चोंच याद आती है,

याद आता है
तुम्हारे स्निग्ध परों का फैलाव
तुम्हारी गोल मासूम आँखें
तुम्हारी मटकती गर्दन
टप्प हिलती तुम्हारी पूँछ,

तुम्हारे गीत याद आते हैं
पहाड़ की मैना,

मैंने
आज फिर रचे हैं कुछ नए गीत
जिसमे पहाड़ हैं
नदियाँ/झरने
और
देवदार हैं,

मैना
तुम्हारी जादुई आवाज मे सुनना है
मुझे
मेरा गीत,

सुनो
मैं तुम्हे अपना गीत भेजता हूँ

तुम
बस
अपना पता बता दो!

*amit anand

शहर की नंगी सड़क

उठो साथी
कदम बढाओ मेरे साथ
मुट्ठियाँ भीचों
भरो एक हुम्म्कार,

एक जुट हों जाओ
साथ-साथ आओ,

आओ
बाँट लेते हैं शहर का हर चौराहा
सारी लाल बत्तियां,

बाँट लेते हैं
सारी कालोनियां, ओफिसें,बाजार

बांटना जरूरी है
क्योंकि-
हमें भी चाहिए एक मकान
इन्ही चौराहों,लाल बत्तियों/ऑफिसों के एन बीच,

आधी "लैला" के शुरूर मे
धुत्त
गुमानी लंगड़ा बन जाता है
"माओत्से तुंग" या फिर कार्ल मार्क्स

और
कुचलता है
शहर की नंगी सड़क को
अकेले मे

"अपनी अकेली टांग के साथ"

*amit anand

"कटिया का गीत"

पक चुके
गेहूं के खेतों पर
दरातियाँ चलती हैं

कुछ
रंगीन चूड़ियाँ
खुरदुरी हथेलियाँ
छूती..
खनकती फिरती हैं
गेहूं का पोर पोर,

जड़ों से कटते हुए
गेहूं
बड़े इत्मीनान से सुनता है
एक गीत-
"कटिया का गीत"

बोल झरते जाते हैं
और
सरहद पर शहीद सैनिकों की तरह
जमीन पर पसरते जाते हैं
पके हुए गेंहूँ,

हाँ पर..
जड़ें अभी भी जमीन से जुडी हुयी ही रहती हैं!

*amit anand

बहती नदिया से तुम

बहती नदिया से तुम
कल-कल
निर्मल
शीतल,

थिर किनारों सा
मेरा अस्तित्व

ना तुम ठहरते हों
ना मैं साथ चल पता हूँ!

*amit anand

मैं

वहम है तुम्हारा

मैं
नहीं नहीं मरता
तुम्हारी
काटी हुयी लकीरों से

ना ही मुझे चढ़ता है
बुखार..
तुम्हारे तमाम नीम्बू मिर्चें
बेकार/ बेअसर हैं मुझ पर,

कुछ भी कर लो..

तुम
अपनी मक्कारियों के साथ -साथ
मुझे भी क्यूँ नहीं दे देते
एक सह-अस्तित्व

आखिर
मैं
तुम्हारे भीतर का शुभ हूँ
तुम्हारा कोमल पक्ष हूँ
"मैं"

*amit anand

Sunday, March 25, 2012

ऊब

रोज़ रोज़ ही
लगभग एक से संवाद
सीमित शब्द,

एक सी भावभंगिमाएँ
... एक तरह के वस्त्र

रोज़ रोज़
घुटनों के बल बैठना

ऊब गया हूँ
इस
काठ के मंच से!

दर्शक बदलते जाते हैं
पर
तुम्हारे मंच का कथानक नहीं बदलता!
*अमित आनंद