Tuesday, April 12, 2011

त्रासद

धान
बिहँसते खिलखिलाते
सिसकते-रिरियाते,
तपती दुपहरी
बरसती शाम
सूनी रात मे
खड़े हो बतियाते,

मैंने
प्रस्फुटन देखा है
धान के बीज..
गीली जमीन पर
उगती नन्ही हरी कोपलें!

उनका उखड़ना
एक नयी
जमीन पर विस्थापन!

फिर भी
अतीत भुला
खिल पड़ते हैं
नयी जमीन पर
मेरे खेत मे विस्थापित
नए पौधे!

नन्हे पौधे
सोखते हैं
जमीन से जीवन रस
और
चिर खड़े
मेरे खेत के धान पक जाते हैं!

कट जाते हैं
अपनी जड़ो से
एक दिन!

समझ नहीं
आता
इस खेल मे
सबसे
त्रासद क्या-

विस्थापन
?
नियत समय पर कट जाना?
या
खड़े होकर
कट जाने की
प्रतीक्षा!!

*amit anand

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