Thursday, November 15, 2012

पन्ने


बारिश की प्रतीक्षा मे चिपचिपे हुए दिन मे मन होता है कि झरबेरियाँ खायी जाएँ, खट-मीठी झरबेरियाँ ....
मन छुट्टी की घंटी के बाद के बच्चे सा भाग उठता है अतीत की ओर स्मृतियों का बस्ता टाँगे...
नदी पर बना पीपे का डग-मग पुल.... किनारों पर खड़े कास के झुरमुट .... जामुन के जंगलों मे चरती हुयी बकरियों की में-में... छूता हुआ .. भोगता हुआ मन,
झरबेरियाँ ढूँढता है !

"वर्त्तमान का एक झोंका शरीर सहलाता हुआ गुजरता है , भादों की तपती दुपहरी ... कसमसाते हुए करवटें बदल रही है"
मन है की नदी किनारे के कास की रपट से कटता... छिलता जाता है, झरबेरियाँ नहीं मिल रहीं ....

अतीत का गडरिया दिखता है कांधे पर कम्बल डाले भेड़ों के पीछे बांसुरी बजाता गडरिया... लकड़ी के बड़े से चक्के वाली बैलगाड़ी पास से चुचुआती गुजर जाती है ..... बावरा मन झरबेरियों के आकुल...
भीगी चाँद रातों के बाद की सुबह सा धुंधलका पसरता जाता है आस पास .... कभी नदी पर बना पुराना पीपा पुल, कभी दैत्याकार खम्भों पर खड़ा नया कंकरीट पुल गडड मड्ड हों रहा...
बैल गाड़ियां भागती जा रहीं.... उनके पीछे हज़ारों हजार मोटर ......
कास मे आग सी उठती दिखी....
मन अब भी झरबेरियों की आस मे भागता फिरता है,

नदी किनारे के जामुन के जंगल गायब हों रहे .. धुंआ धुंआ हों... नए जंगल उग रहे वहाँ कुकुरमुत्तों की तरह के कंकरीट के जंगल ...

धुंधलका गहरा और गहरा होता जाता है....झरबेरियाँ है कि अतीत के किसी पन्ने मे खो सी गयी हैं....

मन.. पन्ने पलटता जाता है!!

*amit anand

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