Sunday, March 25, 2012

रंग मंच

तुम्हारा -रंग मंच
तुम्हारे पात्र
तुम्हारा कथानक
तुम्हारी ध्वनियाँ
प्रकाश तुम्हारा,

तुम्हारा निर्देशन
तुम्हारा अनावरण
पटाक्षेप तुम्हारा,

सुनो-
बहुत त्रासद है
तुम्हारी एकांकी,

झरती आँखें
भीड़ की सिसकियाँ
मैं नहीं सह सकता अब,

मेरा आखिरी मंचन करो
या फिर
अब मुझे
नेपत्थ्य दे दो!

*amit anand

3 comments:

  1. वाह!!! बहुत खूब लिखा है आपने बहुत ही सुंदर भाव संयोजन ...

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  2. अमित भाई ..तुम्हारी कविताओं में ..."क्या हैं" ..आने वाले समय में हो सकता हैं यह शोध का विषय बने ..! और समीक्षा करने में तो मैं पूर्णतया असमर्थ हूँ .. लेकिन हां इतना जरूर कह सकता हूँ ..तुन्हारी कवितायेँ जमीन से उठती हैं ठीक उसी जगह से जहाँ मजदूर का पसीना टपकता हैं ...जहा कोई तितली कंटीली बांडों में उलझ जाती हैं ... जहा प्रेम तर्कों के गणित को तोड़ देता हैं ...और जहा अनहद.अपनी हद पाकर अवाक खड़ा रह जाता हैं ...तुम्हारी कवितायेँ पढ़ कर लगता हैं ..की "गूँगा दर्द" चीख रहा हैं ...और उच्चारित हो रहे हैं सिर्फ "भाव" शब्द नहीं.
    इन कवितायों में तथाकथित कुंठा नहीं हैं ..और नाही वे उथले विषय हैं ..जिनको सिर्फ एक-आध दशक बाद लोगों को समझने में तक मुश्किल हो जाएगी ... की आखिर उस कवी ने ये भड़ास क्यों निकाली थी ... ::-))
    हो सकता हैं अमित ..! मेरी बातें आपको अतिश्योक्ति पूर्ण लगें ...लेकिन मैनें तो जितना भी आपको पढ़ा यही महसूस किया हैं ....शुक्रिया मित्र

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