बूढ़ी नीम की फुनगियाँ
पाठशाले की छत
उनचका टीला
सब
धीरे-धीरे लौट रहे हैं,
उतरते पानी के साथ...
रमिया परेशान हाल
सुबकती है
बंधे पर,
क्या लौट पायेगा
वो कमजोर क्षण
वो
नियति चक्र
जब
इसी बंधे पर
छोटे भाई के लिए
दो रोटियों की तलाश मे
वो गवां आई थी
"सब कुछ"
क्या वो भी लौटेगा
उतरते पानी के साथ??
*amit anand
Tuesday, January 11, 2011
श्रद्धा
हाथ मे फूलों की टोकरी लिए
माथे पर टीका
गोल कुमकुम का,
पीले कपडे,
बनाती हैं
एक आध्यात्मिक महल,
चन्दन सी
भीनी खुशबू वाली
लडकियां..
साक्षात देवियों का
सूक्ष्म रूप,
फूल बेचती हैं
मंदिर की ओर जाती
गलियों मे,
और
ज्यादातर
श्रद्धालु
अपनी गाड़ियों मे
बैठा कर
ले जाते हैं
फूल बेंचती लड़कियों को,
जाने कहाँ....
शायद
श्रद्धा का कोई और रूप भी है
अज्ञात
अवगुंठित!!
*amit anand
माथे पर टीका
गोल कुमकुम का,
पीले कपडे,
बनाती हैं
एक आध्यात्मिक महल,
चन्दन सी
भीनी खुशबू वाली
लडकियां..
साक्षात देवियों का
सूक्ष्म रूप,
फूल बेचती हैं
मंदिर की ओर जाती
गलियों मे,
और
ज्यादातर
श्रद्धालु
अपनी गाड़ियों मे
बैठा कर
ले जाते हैं
फूल बेंचती लड़कियों को,
जाने कहाँ....
शायद
श्रद्धा का कोई और रूप भी है
अज्ञात
अवगुंठित!!
*amit anand
Friday, January 7, 2011
तली के अँधेरे
राम!
तुम सर्व पूजित!
मर्यादा पुरुषोत्तम कैसे..
आओ
हमारे सामने तो आओ
यहाँ
दो दो
आईने हैं
तुम्हारा सत्य तुम्हारे आगे होगा!
तुमने
कौन सा कर्त्तव्य वहन किया
हमारे लिए
क्या
तुम्हारी अयोध्या मे
सिर्फ
जंगल ही शेष थे
हमारे प्रसव को,
हमारा शैशव
अभावग्रस्त क्यूँ राम
हमारी माँ
तुम्हारी अर्धांगिनी
आखिर उसको ही क्या
दे पाए तुम?
तुम भले ही प्रकाशपुंज हो
लेकिन
राम
याद रखो
हम
तुम्हारी ही
तली के अँधेरे हैं
तुम्हारे बेहद अपने!
*amit anand
तुम सर्व पूजित!
मर्यादा पुरुषोत्तम कैसे..
आओ
हमारे सामने तो आओ
यहाँ
दो दो
आईने हैं
तुम्हारा सत्य तुम्हारे आगे होगा!
तुमने
कौन सा कर्त्तव्य वहन किया
हमारे लिए
क्या
तुम्हारी अयोध्या मे
सिर्फ
जंगल ही शेष थे
हमारे प्रसव को,
हमारा शैशव
अभावग्रस्त क्यूँ राम
हमारी माँ
तुम्हारी अर्धांगिनी
आखिर उसको ही क्या
दे पाए तुम?
तुम भले ही प्रकाशपुंज हो
लेकिन
राम
याद रखो
हम
तुम्हारी ही
तली के अँधेरे हैं
तुम्हारे बेहद अपने!
*amit anand
Thursday, January 6, 2011
भूत

रमरजिया!
भूल कर भी नहीं जाती
गाँव के पश्छिम के
महुआ बाग़ मे,
सुना है उधर कोई भूत रहता है!
रामजिया ने
देख रखा है-
अपनी बुआ का
विक्षत शरीर...
अर्ध पागल हुयी माँ का दर्द...
गदरू के छोटकी की
कटी जुबान,
रमरजिया
कांप जाती है
करिक्के महुए के नाम से ही,
रमरजिया
परेशान हो उठती है
तमाम प्रश्नों के साथ
जब
रातों को चीखती उसकी
अर्ध पागल माई
कराह उठती है
"तुम .... तुम ही हो ना छोटके चौधरी"
और
पूरी रात
चौधरी के अहाते का
महुआ बाग़
और करिक्का महुआ
घूमता रहता है
रमरजिया के मासूम प्रश्नों के आस-पास!!
*amit anand
चढ़ी भदेली खाली बजती
तुम क्यूँ सोचो कि मैं तुमको
फूल कभी लिख पाऊंगा,
तुम मुझको मुस्काती मिलना
मैं कांटे लेकर आऊंगा!!
आग बरसती भरी दुपहरी
तेरे तपते आँगन में
चिर प्यासी आँखों के सपने
खिलक पड़ेंगे जब तन में,
तुम तपती धरती बन जाना
मैं पुरवा बन जाऊँगा!!
तुम क्यूँ सोचो........
चढ़ी भदेली खाली बजती
बच्चों की है थाली बजती
आंसू पर है ताली बजती
बनिए की है गाली बजती,
तुम अपने कंगन धर आना
मैं सपने ले आऊंगा,
तुम क्यूँ सोचो कि मैं तुमको
फूल कभी लिख पाऊंगा!!
*amit anand
फूल कभी लिख पाऊंगा,
तुम मुझको मुस्काती मिलना
मैं कांटे लेकर आऊंगा!!
आग बरसती भरी दुपहरी
तेरे तपते आँगन में
चिर प्यासी आँखों के सपने
खिलक पड़ेंगे जब तन में,
तुम तपती धरती बन जाना
मैं पुरवा बन जाऊँगा!!
तुम क्यूँ सोचो........
चढ़ी भदेली खाली बजती
बच्चों की है थाली बजती
आंसू पर है ताली बजती
बनिए की है गाली बजती,
तुम अपने कंगन धर आना
मैं सपने ले आऊंगा,
तुम क्यूँ सोचो कि मैं तुमको
फूल कभी लिख पाऊंगा!!
*amit anand
चलो वीर

चलो वीर
चलो चलते हैं,
चलते हैं उस ठावं
छोड़ अपना
गाँव,
अपना घर
अपने खेत
तीन साल की बेटी
खांसती बीवी
अँधा बूढ़ा बाप
सब छोड़!
छोड़ के चल
गाँव की तलैय्या
सोती हुयी डहर
पसरा हुआ बाग़
सब छोड़!
चल वीर
चलते हैं
शहर...
तोड़ते हैं अपने
बदन
अपनी उम्मीदों के साथ,
चलते हैं
भूखी आँतों का
राग सुनने
सुलगती दुपहरियों पर
प्यास भुनने,
चल
कुछ तिजोरियों को
जरूरत है
हमारे खून की !!
*amit anand
कन्या-भ्रूण

मत रोको माँ!
मुझे मिट जाने दो
ताकि
इस अग्निपरीक्षा से
गुजरना न पड़े मुझको,
मिट ही जाने दो
इस अबोली/ अदेखी को
ताकि
बार बार मिटने का दुःख
बाकी न रह जाए
तुम्हारी तरह!
मत रोको माँ!
अपनी कोख की तरफ बढ़ते
इन हत्यारे हाथों को,
अलबत्ता रोक लो
ये आंसू...
ये छटपटाहट
क्योकि-
इनमे तुम मुझे छिपा नहीं पाओगी
मैं
अपूर्ण ही सही पहचान ली गयी हूँ!!
*amit anand
मुझे मिट जाने दो
ताकि
इस अग्निपरीक्षा से
गुजरना न पड़े मुझको,
मिट ही जाने दो
इस अबोली/ अदेखी को
ताकि
बार बार मिटने का दुःख
बाकी न रह जाए
तुम्हारी तरह!
मत रोको माँ!
अपनी कोख की तरफ बढ़ते
इन हत्यारे हाथों को,
अलबत्ता रोक लो
ये आंसू...
ये छटपटाहट
क्योकि-
इनमे तुम मुझे छिपा नहीं पाओगी
मैं
अपूर्ण ही सही पहचान ली गयी हूँ!!
*amit anand
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